Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती


किस्मत

३)
आज रामकिशोर जी कचहरी में कुछ काम न होने के कारण जल्दी ही लौट आए। मुन्नी की मां बाहर गई थीं । घर में पत्नी को कहीं न पाकर वे बहू की कोठरी की तरफ़ गए। बहू की दयनीय दशा को देखकर उनकी आँखें भर आईं । आज चन्दन जीता होता तब भी क्या इसकी यही दशा रहती ? अपनी भीरुता पर उन्होंने अपने आपको न जाने कितना धिक्कारा। उसकी धोती कई जगह से फटकर सी जा चुकी थी। उस धोती से लज्जा निवारण भी कठिनाई से ही हो सकती थी । बिछौनों के नाम से खाट पर कुछ चीथड़े पड़े थे। जमीन पर हाथ का तकिया लगाए, वह पड़ी थी; उसको झपकी सी लग गई थी। पैरों की आहट पाते ही वह तुरन्त उठ बैठी । रामकिशोर जी को सामने देखते ही संकोच से ज़रा घूँघट सरकाने के लिए उसने ज्यों ही धोती खींची, धोती फट गई; हाथ का पकड़ा हुआ हिस्सा हाथ के साथ नीचे चला आया। राम किशोर ने उसका कमल सा मुरझाया हुआ चेहरा और डब-डबाई हुई आँखें देखीं । उनका हृदय स्नेह से कातर हो उठा; वे ममत्व भरे मधुर स्वर में बोले–“तुसने खाना खा लिया है बेटी !”
किशोरी के मुंह से निकल गया 'नहीं'। फिर वह सम्हल कर बोली “खा तो लिया है बाबू।”
रामकिशोर-मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि तुमने नहीं खाया है। किशोरी कुछ न बोली उसका मुंह दूसरी ओर था, आँसू टपक रहे थे और वह नाखून से धरती खुरच रही थी।
रामकिशोर फिर बोले-तुमने नहीं खाया न ? मुझे दुःख है कि तुमने भी अपने बूढ़े ससुर की एक ज़रा सी बात न मानी।
किशोरी को बड़ी ग्लानि हो रही थी कि वह क्या उत्तर दे; कुछ देर में बोली-“बाबु मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया है; जो कुछ चौके में था खा लिया है; झूठ नहीं कहती"
रामकिशोर को विश्वास न हुआ कहारिन को बुलाकर पूछा तो कहारिन ने कहा-“मेरे सामने तो बहू ने कुछ नहीं खाया। माँ जी ने चौका पहिले ही से खाली कर दिया था, खातीं भी तो क्या ?

पत्नी की नीचता पर कुपित और बहू के सौजन्य पर रामकिशोर जी पानी-पानी हो गये । आज उनके जेब में ५०) थे; उसमें से दस निकाल कर वे बहू को देते हुए बोले । यह रुपये रखो बेटी, तुम्हें यदि जरूरत पड़े तो खर्च करना । इसी समय आँधी की तरह मुन्नी की माँ ने कोठरी में प्रवेश किया । बीच से ही रुपयों को झपट कर छीन लिया; वह किशोरी के हाथ तक पहुँच भी न पाये थे; गुस्से से तड़प कर बोली-बाप रे बाप.! अँधेर हो गया; कलजुग जो न करावे सो थोड़ा ही है। अपने सिर पर की चाँदी की तो लाज रखते । बेटी-बहू के सूने घर में घुसते तुम्हें लाज भी न आई? तुम्हारे ही सर चढ़ाने से तो यह इतनी सरचढ़ी है। पर मैं न जानती थी कि बात इतनी बढ़ चुकी है। इस बुढ़ापे में भी गड़े में ही जा के गिरे ! राम, राम ! इसी पाप के बोझ से तो धरती दबी जाती है।"

वे तीर की तरह कोठरी से निकल गईं। उनके पीछे ही रामकिशोर भी चुपचाप चले गए। वे बहुत बृद्ध तो न थे परन्तु जीवन में नित्य होने वाली इन घटनाओं और जवान बेटे की मृत्यु से वे अपनी उम्र के लिहाज से बहुत बूढ़े हो चुके थे। ग्लानि और क्षोभ से वे बाहर की बैठक में जाकर लेट गए। उन्हें रह-रह कर चन्दन की याद आ रही थी । तकिए में मुँह छिपाकर वह रो उठे। पीछे से आकर मुन्नी ने पिता के गले में बाहें डाल दीं पूछा--क्यों रोते हो बाबू” रामकिशोर ने विरक्ति के भाव से कहा-"अपनी किस्मत के लिए बेटी !”

सवेरे मुन्नी ने भौजी के मुंह से भी किस्मत का नाम सुना था और उसके बाद उसे रोते देखा था। इस समय अब उसने पिता को भी किस्मत के नाम से रोते देखा तो उसने विस्मित होकर पूछा--"किस्मत कहां रहती है बाबू ? क्या वह अम्मा की कोई लगती है ?"
मुन्नी के इस भोले प्रश्न से दुःख के समय भी रामकिशोर जी को हँसी आ गई, और वे बोले-हाँ वह तुम्हारी माँ की बहिन है।
मुन्नी ने विश्वास का भाव प्रकट करते हुए कहा “तभी वह तुम्हें भी और भौजी को भी रुलाया करती है।"

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